परशुराम जी भगवान विष्णु के छठे आंशिक अवतार हैं इनका जन्म इस मन्वंतर यानी की व्यवस्थ मन्वंतर के उन्नीस में त्रेता युग में हुआ था उनका वास्तविक नाम रामभद्र था किंतु परशु धारण करने से वे परशुरामजी कहे जाने लगे कीतने शक्तिशाली थे ? कौन से अस्त्र शस्त्र थे उनके पास ? क्या भूमिका थी उनकी हमारे सनातन इतिहास में ?आज हम इस आर्टिकल में परशुरामजी के बारे में सम्पूर्ण जानकारी आपको देंगें कृप्या इस रोचक आर्टिकल को अंत तक अवश्य पढियेगा knowledge desk blog सनातन धर्म से संबंधित रोचक और ज्ञानवर्धक भुगतान सीधे हमारे धर्मग्रंथों से आप तक लाता है।
आप सब का स्वागत है हमें प्रोत्साहित करने के लिए allow notification ko allow kr de लाइक और शेयर अवश्य कीजिए हमारा Telegram अकाउंट knowledge desk हैं चाहे तो हमारे चैनल से जुड़ सकते हैं ।
परशुराम जी की जीवनी बताने से पहले आपको उनके जन्म के रोचक रहस्य से अवगत करवाना चाहते हैं। विष्णुपुराण अंश चार अध्याय सात के अनुसार परशुराम जी के दादा ऋषि ऋचीक जो महर्षि भृगु के पुत्र थे उनका विवाह गाधी देश की राजकुमारी सत्यवती से हुआ था । तदोपरांत एक समय ऋचीक ऋषि के संतान की कामना से सत्यवती के लिए चरु तैयार किया और उसी के द्वारा प्रसन्न किए जाने पर एक क्षत्रिय श्रेष्ठ पुत्र की उत्पत्ति के लिए एक और चरु उसकी माता के लिए भी बनाया ।पर माता के कहने पर सत्यवतीने अपनी माता के लिए बनाए गए चरु का उपयोग कर लिया जब इस बात का ज्ञान ऋषि कृषि को हुआ तो वह क्रोधित हो उठे और बोले मैने तेरे चरु में शांति ज्ञान और प्रतीक्षा आदि संपूर्ण भ्रमण उचित गुणों का समावेश किया था और तुम्हारी माता के चरु में सम्पूर्ण ऐश्वर्य पराक्रम क्षमता और बल की संपत्ति का आरोपन किया था। उनका विपरीत करने से तेरे भयानक शस्त्रधारी क्षत्रिय के समान आचरण करने वाला पुत्र होगा। यह सुनते ही सत्यवती ने उनके चरण पकड़ लिये और कहा भगवन् अज्ञान वस मेने ऐसा किया है अति प्रसन्न होइए और ऐसा कीजिए जिससे मेरा पुत्र ऐसा न हो भले ही पौत्र ऐसा हो जाये । इस पर मुनि ने कहा ऐसा ही हो तंत्रद उसने जमदग्नी को जन्म दिया और उसकी माता ने विश्वामित्र को उतपन्न किया ऋषि जमदग्नि का विवाह रेणुका से हुआ था इनके पांच पुत्र हुए जिनमें सबसे छोटे थे परशुराम जी उनका वास्तविक नाम रामभद्र था एक समय परशुरामजी की माता रेणुका राजा चित्ररथ पर कुछ पल के लिए मोहित हो गई थी जिसका ज्ञान जमदग्नि को देखते ही हो गया था । और इसे अधिकारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निंदा की उस समय परशुरामजी को छोड़कर उनके चार पुत्र वहाँ उपस्थि थे जमदग्नि जी ने बारी बारी से सभी पुत्रों को यज्ञादि कि तुम अपनी माता का वध कर डालो परंतु मात्र उसने आने से वे कुछ भी बोलना सके बेहोश से खड़े रहे तब महऋषि ने एक उचित हो उनके पुत्रों को श्राप दे दिया श्राप ग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना खो बैठे और तुरंत मृत एवं पक्षियों के सम्मानजनक वृद्धि हो गई तंत्र परशुरामजी सबसे पीछे आश्रम पर आए॥
उस समय ऋषि जमदग्नि ने उसे कहा बेटा अपनी इस पपनी मता को अभी मार डालो और इस के लिए मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम जी ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला इससे महात्मा जमदग्नि का क्रोध शांत हो गया और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा साथ मेरे कहने पर यह कार्य किया है जिससे करना दूसरों के लिए बहुत कठिन है तुम धर्म के ज्ञाता हो तुम्हारे मन में जो जो कामनाएं हो उन सबको मांग लो तक परशुरामजी ने कहा पिता जी मेरी माता जीवित हो उठे उन् हें मेरे द्वारा मारे जाने की बात याद न रहे मानसिक पाप उनका स्पर्श भी न कर सके मेरे चारों भाई सवस्थ हो जाएं युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न हो और में बड़ी आयु प्राप्त करूँ महान तेजस्वी जमदग्नी ने वरदान देकर उसकी सभी कामनाएं पूर्ण कर दीं।
आगे बढ़ने से पहले जानते हैं परशुराम जी को दिव्य अस्त्र शस्त्र जिनमें फरसा प्रमुख था कैसे प्राप्त हुए। ब्रह्मांड महापुराण खंड दो के अनुसार एक समय परशुरामजी भगवान शिव की घोर तपस्या कर रहे थे। और उन्हीं दिनों कई शक्तिशाली दैत्यों ने मिलकर इंद्र सहित समस्त देव को पराजित कर उनको उनके लोगों से निकाल दिया था तब मस्त देव भगवान शिव से सहायता मांगने आए शिवजी ने इंद्र से कहा कि हिमालय के दक्षिण क्षेत्र में राम नाम के ऋषि मेरी तपस्या कर रहे हैं। उन्हें मेरे पास लेकर आओ इन्द्र ने ऐसा ही किया। जब पशु राम जी ने सुना कि स्वयं शिवजी ने उन्हें बुलाया है, तो वो तुरंत वहाँ उपस्थित हुए और उन्हें प्रणाम किया। तब शिवजी ने देवताओं की सारी पीड़ा परशुरामजी को कह सुनाई और बोले आप तो मेरे कार्य को सिद्ध करो और उस सभी दैत्यों को मार डालो। तब परशुराम जी बोले यदि शंकराचार्य और अन् य देव के लिए असुरो को मारना असंभव है तो वे अकेले मेरे द्वारा कैसे मारे जा सकते हैं मैं तो अस्त्र शस्त्र में भी अनभीगे हूँ। मैं युद्ध कला में भी विशेषज्ञ नहीं हूँ। मैं देवकी समस्त शत्रुओं को कैसे मार सकता हूँ । वह भी बिना किसी आयुध के इस प्रकार उनके द्वारा कहे जाने पर देवों के स्वामी भगवान शिव ने दिव्य प्रक्षेपास्त्र परशुरामजी को दे दिए , और इनके साथ ही अपने अति शक्तिशाली फरसा भी परशुरामजी को दिया भगवान शिव बोले मेरी कृपा से है भद्र अब आप में पर्याप्त सकती है। जिससे आप देवो के सभी शत्रु को मार सकते हैं। और बाद में इसी पद से उन्होंने उन सभी दैत्यों का संघार कर दिया।
परशुरामजी ने हरिवंश के अधिपति कार्तवीर्य अर्जुन का वध किया था। कार्तवीर्य ने भगवान नारायण के इक्छा अनुसार दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हज़ार हो जाये और कोई भी शत्रु युद्ध में उनको पराजित न कर सकें यह वरदान प्राप्त कर लिया था जिसके चलते वे अभिमानी हो गया था एक दिन सहस्त्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिए बड़े घोर जंगल में निकल गया। जमदग्नी मुनि के आश्रम पर जा पहुंचा उनके स्वागत सत्कार को कुछ भी आधार ना देकर कार्तवीर्य वहाँ से कामधेनूवहाँ से कामधेनु को बलपूर्वक ले गया तब परशुराम जी आश्रम पर आए और उसकी दुष्टता का वृत्तांत सुनकर वे तिलमिला उठे वे अपना भयंकर फरसा, तरकश, ढाल और धनुष लेकर बड़े से उसके पीछे दौड़ें तब वहाँ उन्होंने कार्तवीर्य की भेजी हुई सो अक्षौहिणी सेना को अकेले ही नष्ट कर दिया ।परशुरामजी ने अपनी तीखी धार वाली फरसे से उसकी भुजाओं को काट डाला और फिर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ।इसके बाद भी उन्होंने 21 बार उन्हें विमान क्षत्रीयों को सफाया स्थिती से किया था। इस समय तक वे सारीं पृथ्वी पर विजय पा चूके थे बाद में वे सब साम्राज्य ऋषि कश्यप को देखकर स्वयं महेंद्रपर्वत पर चले गए थे। प्रमाण काल में जब प्रभु राम ने शिव जी का वो धनुष तोड़ डाला था तब क्रोध में भरे हुए परशुराम जी वहाँ पहुंचें और उन्होंने श्रीराम को चुनौती दी थी वहाँ प्रभु राम ने अपने विश्वविद्यालय से इच्छुक वैष्णवास्त्र का आह्वान किया और इसे परशुरामजी की ओर लक्षित कर दिया वहाँ परशुराम जी को भगवान राम की शक्ति का अहसास हुआ और स्वयं ही प्रभु राम के आगे उन्हें समर्पण कर दिया श्रीराम ने परसू राम जी की संपूर्ण तपस्वी योग्यता भंग कर दी थी और उनसे विष्णु दत्त भी छीन लिया था इसके उपरांत विश्राम की आज्ञा लेकर महेंद्र पर्वत पर पुन तपस्या करने के लिए चले गए थे
आइए अब जानते हैं महाभारत में उनकी भूमिका के बारे में
परशुरामजी ने महाभारत में तीन महारथियों को शिक्षा दी थी जिनका नाम था गुरु द्रोणाचार्य सूर्यपुत्र कर्ण और पितामह भीष्म ने करण को उन्होंने शिक्षा ग्रहण करने के लिए झूट बोलने पर श्राप भी दिया था परशुरामजी का भेष जी के साथ प्रदर्शनकारी युद्ध हुआ था इन दोनों में हुए महासंग्राम का कारण था विश्वजीत द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिक्रिया और वही परशुरामजी एक प्रत्येक महिला के सम्मान के लिए लड़ रहे थे पर आज यह स्वीकार करना इन दोनों के लिए असंभव सा हो गया था परशुरामजी विश्वजीत हावी हो गए थे और उनको रथ पर ही गिरा दिया था तब गंगा और वासु भीष्म जी की मदद के लिए आए थे और उन्होंने भीष्मजी को प्रस्ताव कनस्तर का स्मरण कराया था परशुरामजी ने उस समय अपने पूर्वजों के अनुरोध पर लड़ाई से हटने का निर्णय किया था। और उन्हें स्वयं खुद को पराजित माना था क्योंकि उनके पास प्रस्तावन युद्ध स्तर का कोई उत्तर नहीं था यह युद्ध के इस 21 दिन तक चला था परशुरामजी को चिरंजीवी माना गया है और भगवान विष्णु के अंतिम अवतार भगवान कलकी के उपदेश के रूप में वे पुणे उपस्थित होंगे।
आज परशु राम का जन्म दिन है । इनके बारे में जान कर आपको अगर अच्छा लगे तो शेयर करना। ऐसे ही आर्टिकल के लिए कमेंट करे।
परिवार पर बना रहे इसी कामना के साथ नमस्कार
0 Comments